मेरी नहीं ये पंक्तियाँ सुविख्यात श्री रामधारी सिंह दिनकर की हैं(‘संस्कृति के चार अध्याय’- तृतीय संस्करण की भूमिका से उद्धृत) :
“साहित्य की ताजगी और बेधकता जितनी शौकिया लेखक में होती है, उतनी पेशेवर में नहीं होती. कृति में प्राण उंडेलने का दृष्टांत बराबर शौकिया लेखक ही देते हैं. थरथराहट, पुलक और प्रकम्प, ये गुण शौकिया की रचना में होते हैं. पेशेवर लेखक अपने पेशे के चक्कर में इस प्रकार महो रहते हैं कि क्रांतिकारी विचारों को वे खुलकर खेलने नहीं देते. मतभेद होने पर भी वे हुक्म, आखिर तक, परंपरा का ही मानते हैं.
संस्कृति का इतिहास शौकिया शैली में ही लिखा जा सकता है. इतिहासकार, अक्सर एक या दो शाखाओं के प्रामाणिक विद्वान होते हैं. ऐसे अनेक विद्वानों की कृतियों में पैठकर घटनाओं और विचारों के बीच सम्बन्ध बिठाने का काम वही कर सकता है, जो विशेषज्ञ नहीं है, जो सिक्कों, ठीकरों और इंटों की गवाही के बिना नहीं बोलने की आदत के कारण, मौन नहीं रहता. सांस्कृतिक इतिहास लिखने के, मेरे जानते दो ही मार्ग हैं. या तो उन्हीं बातों तक महदूद रहो, जो बीसों बार कही जा चुकीं हैं, इस प्रकार खुद भी बोर होवो और दूसरों को भी बोर करो; अथवा आगामी सत्यों का पूर्वाभास दो, उनकी खुलकर घोषणा करो और समाज में नीमहकीम कहलाओ, मूर्ख और अधपगले की उपाधि प्राप्त करो।
अनुसंधानी विद्वान सत्य को तर्क से पकड़ता है और समझता है सत्य, सत्य सचमुच उसकी गिरफ्त में है। मगर इतिहास का सत्य क्या है? घटनाएं मरने के साथ फोसिल बनने लगती हैं, पत्थर बनने लगती हैं, दन्तकथा और पुराण बनने लगती हैं। बीती घटनाओं पर इतिहास अपनी झिलमिली डाल देता है, जिससे वे साफ-साफ दिखाई न पड़ें, जिससे बुद्धि की ऊंगली उन्हें छूने से दूर रहे। यह झिलमिली बुद्धि को कुंठित और कल्पना को तीव्र बनाती है, उत्सुकता में प्रेरणा भरती और स्वप्नों की गांठ खोलती है। घटनाओं के स्थूल रुप को कोई भी देख सकता है, लेकिन उनका अर्थ वहीं पकड़ता है, जिसकी कल्पना सजीव हो। इसलिए, इतिहास का सत्य नहीं एक अनुसंधानों से खंडित हो जाता है, लेकिन, कल्पना से प्रस्तुत चित्र कभी भी खंडित नहीं होते।