प्रिय तुम सो जाओ,
ना जगो आस में,
थक गई बहुत हूँ,
यद्यपि हूँ, यहीं पास में!
बाहर का झेला है तुमने,
ब-मुश्किल मैं भी सकी झेल,
ऊपर से पी कर आये हो,
बीवी को क्या समझा है ‘खेल’?
तुमने उतार दी पी कर के,
मैं कहाँ उतारूं, बतलाओ..
भड़ास समूचे दिन भर की,
हो सके मुझे भी समझाओ!
जो आया मन में है तुम्हरे,
उगल कर शांत हो तुम बैठे,
आये ना मुझे मन का कहना,
मेरी चुप्पी समझो तो कैसे?
पूछोगे “प्यार नहीं करती?”
नहीं करती, यदि यही प्यार है!
इसे मैं नाम नहीं दूँगी,
समझते तुम क्या हो,
क्या है ये,
तुम्हारे ही मुंह से बयां हो!
प्यार यदि करते, पूछते हाल हमारा,
दिन भर क्या-क्या किया…
समझते कष्ट हमारा!
सही कहा, झेलते तुम हो बहुत,
क्या समझो क्या-क्या झेला है,
मैनें बनकर बस बुत!
कपडे-लत्ते,चौका-बर्तन,
सब तो मेरे सर पे हैं,
झाडू-पोंछा करती है कामवाली,
पर वो भी बस ऐं–वैं ही है!
भोर जगूं मैं पांच बजे,
पानी आता है उसी वकत,
बर्तन जूठे धोऊंगी कंब,
बतला दो मुझे तुम यही फकत!
बहस में न उलझाओ मुझे,
ना करो रार,
ना जगो आस में,
प्रिय तुम सो जाओ!
वाह !
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