नौकरियों की जमा संख्या,
आकलन कभी किया है क्या?
दो फीसदी ही हैं सरकारी,
सारी मेधाएं खपेंगी क्या?
अपवादों को छोड़ समझ लो,
मेधा पैसों का प्यादा है,
पैसे ऊँचों के पास अधिक हैं,
निचली जाति निर्धन ज्यादा है!
ऊंच नीच की यह खाई,
मिटेगी बोलो कैसे भाई,
संविधान में बराबरी की,
कसम हमने क्या झूठी खाई?
झूठी बात कि देश है बंटता,
जाति धर्म के नाम पे अब,
शुरू से होता रहा है ये सब,
ये गलती भी हमारी है सब!
ऊंच नीच की जाति प्रथा,
हम ऊंचों ने ही फैलाई,
धर्म अन्य कोई भी हो,
कभी ना हमको मन से भाई!
करें जागरण कीर्तन हम,
शोर करें हम जितना ज्यादा,
दो लम्हों के नमाज से लेकिन,
पड़े हमारी शांति में बाधा!
निचलों को भी बराबर समझें,
हमने कभी किया है क्या,
उनका साथ ना होता तो खुद को
आजाद भला कह पाते क्या?
राजनीति की अच्छी छेड़ी,
ओछी जैसे ये आज हुई!
जितने ओछे हम होंगे,
राजनीति भी होगी मुई!
देश को यदि बचाना है तो,
खोलो आँख और रखो भान,
सचेत रहो, फैलाओ चेतना,
बकवासों पर ना दो ध्यान!
गलत नीतियों, फैसलों का,
करो विरोध, और रखो ज्ञान,
प्रगति पथ में सहयोगी है,
बाधा कभी नहीं है संविधान!
भेदभाव नहीं होनी चाहिए, इससे सहमत हूँ. पर बराबरी में लाने के लिए आरक्षण की समय सीमा होनी चाहिए. उसके पश्चात सभी को समान दृष्टि से देखा जाना चाहिए. सुंदर कविता
LikeLiked by 1 person
यदि सच में आप हृदय से सामाजिक-आर्थिक भेदभाव का विरोध करते हैं तो, कम से कम जाति के आधार पर होता हुआ अन्याय जितना आपने बचपन से देखा है और आज भी देख रहे हैं/होंगे, उसे निर्मूल करने का और क्या उपाय सुझाते हैं? उनके प्रति हो रहे अन्याय का विरोध करने की भी उन्होनें जो सोचना शुरु किया है, जनसंख्या का प्रतिशत देखें तो छिटपुट ही दिखेगा वह, इसी आरक्षण के कारण संभव हो सका है! पर इन छिटपुट विरोधी स्वरों और क्रियाओं पर हमारा अहम् इतना आहत हुआ है कि हम उन्हें मिलने वाले इस निदानात्मक अधिकार का मुखर विरोध करने को उद्यत हो गये हैं कि हम भूल गये सदियों के उनके अन्याय को सहते जाने और गिड़गिड़ाते हुए रहम की भीख मांगने के सिवा और कुछ भी न कर पाने को अपनी नियति मानने को, कुल मिलाकर उनके द्वारा खुद को पशुतुल्य स्वीकार कर लिए जाने को!
चाहूंगा कि यह चर्चा लम्बी चले!
LikeLike