(कविता, तुकबंदी जो भी बन पाई है यह, इसके बनने की कहानी दिलचस्प है! चेन्नई के आवडी स्थित एम टी टी आई के हिन्दी पत्रिका ‘परिवाहिका’ का प्रथम अंक छपना था, प्रशिक्षुओं की प्रविष्टियों से बात नहीं बन रही थी तो कुछ बेहतर चाहिए था, मुझे एक दिन का समय दिया गया दो पृष्ठ की सामग्री देने के लिए। और इस तरह अस्तित्व में आई यह और ‘डोर’ जो वस्तुतः मेरी पत्नी किरण द्वारा रचित है। मेरे नाम के वेबसाइट पर उसे प्रकाशित करने की वाजिब वजह है, पर वह बाद में कभी!)
पत्नी के फायदे?, अरे ढेरों हैं श्रीमान,
इक बहु-उपयोगी चीज़ कि जिसका कोई नहीं गुमान!
कोई नहीं गुमान, कि अरे जनाबे आली,
सुबह, दोपहर, शाम औे रात परोसे थाली!
सेवा करे पति की हर तरह, बने सेविका,
बिन उपहार मनुहार, रहे स्थाई प्रेमिका!
कपड़े लत्ते, चौका बर्तन, या हो झाड़ू पोंछा,
बनी रहे मुस्तैद सदा क्या कभी ये हमने सोचा?
कभी ना सोचा, व्यस्त रहे वो चौबीस घंटे,
सपने में भी निपटाए बच्चों के टंटे!
रुपये कमायें भले आप, हिसाब तो वो ही रक्खे,
बिना खिलाएं आप सभी को, स्वयं न कुछ भी चक्खे!
हर दिन ड्यूटी करे, वो छुट्टी कभी ना पाए,
सुने हमेशा पति की, भले वो फूटी आंख ना भाए!
इसलिए,
मानिए बात हमारी, कीजै अब पत्नी पूजा,
क्योंकि इतना आनंद ना देवे कोई दूजा!
अंततः,
कहें अजय कविराय, बनो ना हड्डी, बनो कबाब,
फायदे बहुत हैं पत्नी के, क्या समझे आप जनाब?!!!