Poems

डोर (2001 में रचित)

बचपन की बातें…..,
खेल खेल में बीते सारे दिन,
सपनों में बीतीं, सारी सारी रातें!

बड़ी हुई तो…
ख्वाबों ने अंगड़ाई ली,
वो जागते के ख्वाब,
वो सोते के सपने,
ख्वाबों की वो दुनियां,…
सपनों की वो परी प्यारी,
सारे जहां से थी न्यारी!

हवाओं से हल्की हो,
बिना डोर के पतंग बन,
उड़ती थी मैं……
निर्बंध नदी बन
बहती थी मैं!

लेकिन,
अब आया समझ में,
कैसे अटपटे थे मेरे सपने,
हवाओं से हल्की और,
बिना बांध की नदी,
क्या बन सकता है कोई?

वो सारे ख्वाब,
वो सारे सपने,
कैसे बेमानी थे भला!
बिना डोर के पतंग,
हो सकती है क्या?

और,
डोर हो तो,
‘आजादी’,
बेमानी नहीं तो, और क्या!!!!

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