इच्छायें कितनी भी बलवती हों,
अगर उनका पूरा होना,
किसी और पर मुनहसर है,
तो आपको बहुत बहुत तकलीफ़
हो सकती है।
आखिर कितना साधन संपन्न
हो सकते है आप?
दूसरे से अपनी इच्छा मनवाना
भला कैसे संभव है!
फिर,
अपनी इच्छाओं को काबू करना
अकेला विकल्प बचता है!
कभी पढ़ा था, ‘भू- दाह’,
बुद्ध की शिक्षाओं का सार,
इच्छाओं का त्याग या शमन नहीं,
उनसे कहीं ऊपर उठ जाना!
पर सभी कहां हो पाते बुद्ध, महावीर,
कहां हो पाते लीन इतना
‘उस’ में, ‘ध्यान’ में, ‘भगवान’ में,
कि भोजन व वस्त्र तक भूल जाएं!
और फिर क्यों करें वो ऐसा?
एक और पंथ या धर्म चलाने को?
अधिक किया क्या इन महानों ने?
कहां कुछ भी बदला है धरा पर,
अनगिनत पंथों ने संसार के?
मानवता चल रही वही-
ढाक के तीन पात!
जब तक जीवन रहेगा,
रहेंगी इच्छाएं बदस्तूर,
सुंदर भी बदसूरत भी,
और इनके कारण होते रहेंगे,
सृजन भी, विध्वंस भी,
प्यार भी, तकरार भी,
संबंध और विच्छेद भी!
संसार ऐसे ही चलता रहेगा,
इच्छाओं की ही रफ्तार से,
कभी मंद मंद, कभी तेज तेज,
कभी गिरता, कभी संभलता,
कभी बनता बनाता,
तो कभी बिगड़ता बिगाड़ता,
इच्छाओं का होना शाश्वत जो ठहरा!